09 December, 2007

सपनें

इन्द्र दनुष के रंगों से सजाया था दुनिया मेरा
लगाने लगा था मदमस्त खुशियों का ढेरा
बह चले सारे रंग बादलों के गरजने से
चुप चाप उतर चला नशा,इस मेले से ||

सोचने से भी लगता है डर
क्या फिर से टपकेंगे सपनें बनकर ?
कैसे जेलूँ में हकीकत का वार
क्या यही है ज़िंदगी का सार ? ||

सपनें तो सपनें ही होतें हैं
सच में तो कुछ भी नहीं होतें हैं
उदास न हो ओ सपनों के सौधागर
आयेगा ज़िंदगी में तेरे कोई जादूगर ||

समझ लो अच्छे से यह देववाणी
डूँढों हिम्मत से ,भूलों परेशानी
तैरों जी जान से जीवन के हर लहर पर से
पाओगे हरदम आशा आत्मविश्वास अपने दिल से ! ||

No comments: